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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


स्‍वामिनी मुंशी प्रेम चंद
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कई दिन तक प्यारी मूर्छित-सी पड़ी रही। न घर से निकली, न चूल्हा जलाया, न हाथ-मुँह धोया। उसका हलवाहा जोखू बार-बार आकर कहता - 'मालकिन, उठो, मुँह-हाथ धोओ, कुछ खाओ-पियो। कब तक इस तरह पड़ी रहोगी। इस तरह की तसल्ली गाँव की और स्त्रियाँ भी देती थीं। पर उनकी तसल्ली में एक प्रकार की ईर्ष्या का भाव छिपा हुआ जान पड़ता था।
जोखू के स्वर में सच्ची सहानुभूति झलकती थी। जोखू कामचोर, बातूनी और नशेबाज था। प्यारी उसे बराबर डाँटती रहती थी। दो-एक बार उसे निकाल भी चुकी थी। पर मथुरा के आग्रह से फिर रख लिया था। आज भी जोखू की सहानुभूति-भरी बातें सुनकर प्यारी झुंझलाती, यह काम करने क्यों नहीं जाता। यहाँ मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है, मगर उसे झिड़क देने को जी न चाहता था। उसे उस समय सहानुभूति की भूख थी। फल काँटेदार वृक्ष से भी मिलें तो क्या उन्हें छोड़ दिया जाता है?
धीरे-धीरे क्षोभ का वेग कम हुआ। जीवन के व्यापार होने लगे। अब खेती का सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सलाह दी, एक हल तोड़ दो और खेतों को उठा दो, पर प्यारी का गर्व यों ढोल बजाकर अपनी पराजय स्वीकार न करना था। सारे काम पूर्ववत् चलने लगे। उधर मथुरा के चिट्ठी-पत्री न भेजने से उसके अभिमान को और भी उत्तेजना मिली। वह समझता है, मैं उसके आसरे बैठी हूँ, उसके चिट्ठी भेजने से मुझे कोई निधि न मिल जाती। उसे अगर मेरी चिंता नहीं है, तो मैं कब उसकी परवाह करती हूँ।
घर में तो अब विशेष काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती-बारी के कामों में लगी रहती। खरबूजे बोये थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा दूध घर में खर्च हो जाता था, अब बिकने लगा। प्यारी की मनोवृत्तियों में भी एक विचित्र परिवर्तन आ गया। वह अब साफ कपड़े पहनती, माँग-चोटी की ओर से भी उतनी उदासीन न थी। आभूषणों में भी रूचि हुई। रूपये हाथ में आते ही उसने अपने गिरवी गहने छुड़ाए और भोजन भी संयम से करने लगी। सागर पहले खेतों को सींचकर खुद खाली हो जाता था। अब निकास की नालियाँ बंद हो गयी थीं। सागर में पानी जमा होने लगा और उसमें हल्की-हल्की लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।
एक दिन जोखू हार से लौटा, तो अंधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा- अब तक वहाँ क्या करता रहा?
जोखू ने कहा- चार क्यारियाँ बच रही थी। मैंने सोचा, दस मोट और खींच दूँ। कल का झंझट कौन रखे?
जोखू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह हीले-बहाने करता था। अब सब-कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन हार में थोड़ी ही रह सकती थी, इसलिए अब उसमें जिम्मेदारी आ गयी थी।
प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा- अच्छा, हाथ मुँह धो डालो। आदमी जान रखकर काम करता है, हाय-हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज न होते, कल होते, क्या जल्दी थी।
जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ में कारगुजारी की थी और समझा था, तारीफ होगी। यहाँ आलोचना हुई। चिढ़कर बोला- मालकिन, दाहने-बायें दोनो ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो? कल के लिए तो उंचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं। आज बड़ी मुश्किल से कुआँ खाली हुआ था। सवेरे मैं पहुँचता, तो कोई और आकर न छेंक लेता? फिर अठवारे तक राह देखनी पड़ती। तक तक तो सारी उख बिदा हो जाती।
प्यारी उसकी सरलता पर हॅंसकर बोली- अरे, तो मैं तुझे कुछ कह थोड़ी रही हूँ, पागल। मैं तो कहती हूँ कि जान रखकर काम कर। कहीं बीमार पड़ गया, तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
जोखू- कौन बीमार पड़ जायगा, मैं? बीस साल में कभी सिर तक तो दुखा नहीं, आगे की नहीं जानता। कहो रात-भर काम करता रहूँ।
प्यारी- मैं क्या जानूँ, तुम्हीं अंतरे दिन बैठे रहते थे, और पूछा जाता था तो कहते थे- जुर आ गया था, पेट में दरद था।
जोखू झेंपता हुआ बोला- वह बातें जब थीं, जब मालिक लोग चाहते थे कि इसे पीस डालें। अब तो जानता हूँ, मेरे ही माथे हैं। मैं न करूँगा तो सब चौपट हो जायगा।
प्यारी- मै क्या देख-भाल नहीं करती?
जोखू- तुम बहुत करोगी, दो बेर चली जाओगी। सारे दिन तुम वहाँ बैठी नहीं रह सकतीं।
प्यारी को उसके निष्कपट व्यवहार ने मुग्ध कर दिया। बोली- तो इतनी रात गये चूल्हा जलाओगे। कोई सगाई क्यों नही कर लेते?
जोखू ने मुँह धोते हुए कहा- तुम भी खूब कहती हो मालकिन! अपने पेट-भर को तो होता नहीं, सगाई कर लूँ! सवा सेर खाता हूँ एक जून पूरा सवा सेर! दोनों जून के लिए दो सेर चाहिए।
प्यारी- अच्छा, आज मेरी रसोई में खाओ, देखूँ कितना खाते हो?
जोखू ने पुलकित होकर कहा- नहीं मालकिन, तुम बनाते-बनाते थक जाओगी। हाँ, आध-आध सेर के दो रोटा बनाकर खिला दो, तो खा लूँ। मैं तो यही करता हूँ। बस, आटा सानकर दो लिट बनाता हूँ और उपले पर सेंक लेता हूँ। कभी मठे से, कभी नमक से, कभी प्याज से खा लेता हूँ और आकर पड़ रहता हूँ।
प्यारी- मैं तुम्हे आज फुलके खिलाऊँगी।
जोखू- तब तो सारी रात खाते ही बीत जायगी।
प्यारी- बको मत, चटपट आकर बैठ जाओ।
जोखू-जरा बैलों को सानी-पानी देता जाऊँ तो बैठूँ।

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